Friday, August 1, 2014

सच्ची पूजा |

हर धर्म का प्राणी अपने धर्म के अनुसार पुजा अर्चना  करता है| सही मायने में पुजा पाठ करने से मन को शान्ति मिलनी चाहिए| ज्यादातर ऐसा होता है कि पुजा पाठ करते हुए भी मानव का मन इधर उधर डोलता रहता है| मेरे मतानुसार मन पर नियंत्रण करने का ही दूसरा नाम पुजा है|

गृहस्थ जीवन  में जो व्यक्ति  अपने परिवार का सच्चे मन से पालन करता है वह भी भगवान की पुजा कहलाती है| संत रविदास जी का जीवन भी कुछ इसी प्रकार से रहा है| रविदास जी जाति से चमार थे| अपने पारिवारिक व्यवसाय के अनुसार वह भी जूती गांठने का कार्य करते थे| अपने परिवार के पालन कार्य में खर्च करने के बाद जो धन बचता  उसे वह दिन दुखियों की सहायता  और साधू संतों की सेवा में खर्च करते थे|

एक बार उनकी दूकान पर राजपुरोहित जी (पंडित) अपनी जूती ठीक कराने के लिए आये| जूती गांठते  हुए भी रविदास जी धर्म से सम्बंधित बातें करते रहे उनकी बातों से पंडित जी भी काफी प्रभावित हुए जिसके कारण पंडित जी का रविदास जी की दुकान पर आना जाना शुरू हो गया|

 एक दिन पंडित जी ने रविदास जी से कहा कि मैं गंगा स्नान करने जा रहा हूँ तुम भी हमारे साथ चलो| रविदास जी ने कहा कि मेरे पास ग्राहकों का काफी काम करना बाकी है उसे समय पर देना है जिसके कारण मैं आपके साथ गंगा स्नान के लिए नहीं जा सकता| आप मेरी ओर से एक पैसा गंगा जी को दे देना|

पंडित जी गंगा स्नान के लिए चल दिए| गंगा घाट  पर पहुँच कर पंडित जी ने स्नान करके गंगा मैया की पुजा अर्चना के बाद आरती की| अपने सभी कार्यों से फारिग होने के बाद उन्होंने रविदास जी के द्वारा दिया गया पैसा गंगा जी में उछालने के लिए  जैसे ही हाथ ऊपर को उठाया तो तुरंत आवाज आई कि हे मुर्ख ब्राह्मन किसी के द्वारा दी गयी भेंट को फैंक कर नहीं बल्कि सम्मानजनक रूप से उसके हाथों में देना चाहिए|

ऐसा सुनते ही पंडित जी चित्रलिक्खे से  अचंभित हो चारों ओर देखने लगे तो देखा कि गंगा जी के अन्दर से एक हथेली बाहर आई पंडित जी ने वह पैसा उस हथेली के ऊपर रख दिया इसके बाद गंगा जी में से दूसरी हथेली बाहर आई उसमे एक रत्नजडित, अदितीय और बहुत ही सुन्दर कंगन था तुरंत आवाज आई कि हे ब्राह्मन यह कंगन मेरे भक्त रविदास को देदेना| पंडित जी ने वह कंगन ले लिया|

पंडित जी का मन उस अद्दभुत कंगन को देख ईर्ष्या से जल उठा| और लालच के वशीभूत मन के डावांडोल होने पर विचार करने लगे कि इस कंगन पर रविदास का नहीं बल्कि मेरा अधिकार है मैंने बहुत ही भक्तिभाव से गंगा जी की पूजा की उसी से प्रसन्न होकर गंगा  जी प्रगट हुईं यह पैसा तो अचानक बीच में आ गया जिसके कारण उन्होंने यह कंगन रविदास को देने के लिए कहा मैं यह कंगन अपनी पण्डितायन  को दूंगा इसे देखकर वह खुश हो जायेगी|

फिर मन में विचार आया कि यह कीमती कंगन है|  मैं राजा के यहाँ से प्राप्त दक्षिणा से अपने परिवार का पालन करता हूँ| पडोसी इसे देख चर्चा  करेंगे कि ऐसा कीमती कंगन  इस ब्राह्मन के पास कहाँ से आया? चोर उचक्कों का डर अलग से| अगर मैं इस कंगन को राजा साहब को दूंगा तो वह बहुत खुश होंगे|

ऐसा विचार कर पंडित जी ने उस कंगन को राजा को भेंट स्वरूप दे दिया|  राजा ने उस कंगन को अपनी रानी को दिया रानी ने उस कंगन को देख कर राजा से कहा कि महाराज इस कंगन का जोड़ा मिला दीजिये ताकि मैं अपने दोनों हाथों में एक से ही कंगन पहन सकूँ| दोनों हाथों में एक जैसे कंगन पहनने से हाथों की शोभा बढ़ेगी|

राजा ने अगले दिन पंडित जी से उस जैसा दूसरा कंगन लाने के लिए कहा| ऐसा सुनते ही पंडित जी के पैरों के नीचे से ज़मीं खिसक गयी| परेशान हो सोचने लगे कि यह सब उस रविदास के कारण ही हुआ है क्यों न मैं उसे ही इस जाल में फंसा  दूँ| ऐसा सोच कुटिल चाल चलते हुए राजा से कहा कि महाराज यह कंगन तो रविदास ने दिया था अत: संदेशवाहक को भेज कर उससे दूसरा कंगन मंगा  लीजिये|

राजा ने अपने एक कर्मचारी को वह कंगन देकर रविदास जी के पास भेज दिया| पंडित जी भी उस कर्मचारी के पीछे पीछे चल दिए| कर्मचारी के द्वारा दूसरा कंगन मांगने पर रविदास जी ने गंगा जी की स्तुति की| सभी घटित  घटनाओं का बोध होने पर उन्होंने गंगा मैया से प्रार्थना की और कहा कि हे गंगा मैया आज मेरे कारण यह गरीब ब्राह्मन संकट में फंस  गया है अत: इस जैसा ही दूसरा कंगन देने कीकृपा करे|

ऐसा सोचकर उन्होंने अपने सामने रक्खी कठौती में हाथ डाल दिया | (जिस  मिटटी के बर्तन में पानी भर कर चमार चमड़े को भिगो कर नरम करते हैं उस बर्तन को कठौती कहते हैं) जैसे ही उन्होंने हाथ बर्तन से बाहर निकाला उसमे दूसरा पहले जैसा ही कंगन था|

इस द्रश्य को देख पंडित जी आश्चर्यचकित हो रविदास जी के पैरों में गिर कर माफ़ी मांगने लगा| रविदास जी ने पंडित जी को गले से लगा लिया| ऐसे ही व्यक्तियों के बारे में कहा गया है कि:-
                                                                बड़े बड़ाई न तजें बड़े न बोलें बोल|
                                                              हीरा कब मुख से कहे लाख टका मेरा मोल|| 

 उपरोक्त कहानी के आधार पर हमें विचार करना है कि हमारे द्वारा की गयी पूजा कैसी होनी चाहिए| पूजा कोई  दिखावे के लिए नहीं होती| पूजा मन की शांति  के लिए की जाती है| जिस कार्य को करने से मन को शान्ति मिले वही  पूजा है|

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